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जर्मनी में घरों की किल्लत से बहुत परेशान हैं विदेशी छात्र

हेलेन व्हीटल
२८ अक्टूबर २०२३

जर्मनी में दसियों हजार छात्रों को नए शैक्षणिक वर्ष की शुरुआत में घर नहीं मिल पा रहा है. विदेशी छात्र सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं. आखिर इसकी वजह क्या है?

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छात्रों को घरों के लिए खासी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है
जर्मनी में दुनिया भर से छात्र पढ़ने आते हैतस्वीर: Christoph Hardt/Panama Pictures/IMAGO

सर्दी शुरू होते ही जर्मनी के विश्वविद्यालयों में विंटर सेमेस्टर की शुरुआत हो जाती है. हालांकि, स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे दसियों हजार छात्रों को इस साल नई मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है. उन्हें रहने के लिए घर नहीं मिल पा रहा है. छात्रों को छात्रावासों या उचित किराए वाले शेयरिंग फ्लैट में जगह मिलने की संभावना बेहद कम या ना के बराबर दिख रही है. यह स्थिति जर्मनी में बिगड़ते आवास संकट की वजह से उत्पन्न हुई है.

स्थिति कितनी खराब है, इसका अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि जर्मन शहर गोएटिंगन में छात्र संघ ने एक होटल को किराए पर लिया है. छात्र अपने सेमेस्टर के पहले कुछ हफ्तों के लिए यहां कम किराए पर रह सकते हैं. वहीं, म्यूनिख में एक कैंपिंग साइट ने बेघर छात्रों को कम किराए पर कैंप करने का मौका दिया है. इस शहर में छात्रों को घर के किराए के तौर पर प्रति माह औसतन 720 यूरो यानी करीब 63,000 रुपये देने पड़ते हैं.

इस साल की शुरुआत में एडुआर्ड पेस्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन में पाया गया कि जर्मनी में सात लाख से अधिक किफायती अपार्टमेंट की कमी है. इन सब के बीच उन शहरों में घरों के किराए काफी ज्यादा बढ़ गए हैं जहां विश्वविद्यालय हैं.

जर्मन छात्र संघ (डीएसडब्ल्यू) के अध्यक्ष मथियास अंबुहल ने 16 अक्टूबर को जारी बयान में कहा कि बड़े शहरों में छात्रों के लिए किफायती आवास की कमी दशकों से ‘गंभीर स्थिति' में है. फिलहाल, डीएसडब्ल्यू पूरे जर्मनी में करीब 1,96,000 कमरों या बेड वाले 1,700 छात्रावासों का प्रबंधन करता है. अभी इसकी प्रतीक्षा सूची में 32,000 से अधिक छात्र हैं.

छात्रों को घर ढूंढने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है
बर्लिन फ्री यूनिवर्सटी के छात्र मर्लिन और तालिनातस्वीर: Helen Whittle/DW

काउच सर्फिंग और लंबी यात्राएं

बर्लिन की फ्री यूनिवर्सिटी (एफयू) के कैंपस में एक जर्जर पुराने सोफे पर अपने लैपटॉप के साथ बैठे 22 वर्षीय मर्लिन को शेयरिंग फ्लैट में कमरा नहीं मिल पाया है. फिलहाल वह बर्लिन शहर से थोड़ी दूर स्थित क्लाइनमाख्नोव में अपने माता-पिता के घर और एफयू कैंपस के नजदीक अपने मौसी के घर पर रह रहे हैं. वह कहते हैं, "मैं घर के किराए के लिए हर महीने 500 यूरो दे सकता हूं. इसके बावजूद मुझे घर नहीं मिल पा रहा है. कई बार तो मकान मालिक कोई जवाब तक नहीं देते.”

मर्लिन के बगल में बैठी पशु चिकित्सा विज्ञान की छात्रा 21 वर्षीय तालिना कहती हैं कि अगस्त महीने में मुझे सिर्फ एक महीने का नोटिस देकर घर खाली करा लिया गया. अब वे फिर से अपने परिवार के साथ रहने के लिए लौट गईं. उनके साथ पढ़ने वाली एली को भी साल खत्म होने से पहले रहने के लिए कोई और जगह ढूंढनी होगी.

बर्लिन जैसे शहरों में अब आसानी से घर नहीं मिल रहे हैं. मोसेस मेंडलसोन इंस्टीट्यूट और एक फ्लैटशेयर प्लैटफॉर्म के रिसर्च के मुताबिक, बर्लिन में शेयरिंग अपार्टमेंट में एक कमरे का किराया पिछले एक दशक में दोगुना होकर औसतन 650 यूरो तक पहुंच चुका है. पिछले साल की तुलना में यह 100 यूरो अधिक हो चुका है. जबकि, फेडरल स्टूडेंट लोन और अनुदान योजना के तहत छात्रों को आवास के लिए महज 360 यूरो का भत्ता मिलता है.

बर्लिन छात्र संघ की प्रवक्ता याना ज्यूडिश ने डीडब्ल्यू को बताया, "इसका नतीजा यह हुआ है कि करीब 2 लाख छात्र छात्रावासों में कमरे के लिए आवेदन कर रहे हैं. संघ के पास फिलहाल 9,000 छात्रों के लिए बेड है और 4,900 छात्र प्रतीक्षा सूची में हैं. कई छात्र लंबी यात्रा करके शहर के दूर-दराज इलाकों और उससे भी आगे ब्रांडेनबुर्ग से आ रहे हैं.”

एफयू में भाषा की पढ़ाई कर रही 30 वर्षीय छात्रा कार्ला भाग्यशाली लोगों में से एक हैं. उन्हें शेयरिंग फ्लैट में कमरा कुछ साल पहले मिला था जब किराया आज की तुलना में काफी कम था, लेकिन अब हालात बदल गए हैं. वह कहती हैं, "हमारे यहां किराए पर कमरे लेने के बावजूद छात्रों को सोफे पर सोना पड़ता है, क्योंकि उन्हें रहने के लिए कोई और जगह नहीं मिलती.”

छात्रों को घर या तो मिल नहीं रहे या फिर इतने महंगे हैं कि वो उनका किराया नहीं दे सकते
छात्रों को घर ढूंढने में बहुत मशक्कत करनी पड़ रही हैतस्वीर: Ute Grabowsky/photothek/IMAGO

विदेशी छात्र सबसे ज्यादा प्रभावित

एफयू कैंपस में अपने कार्यालय में बात करते हुए जनरल स्टूडेंट कमेटी (एएसटीए) में सामाजिक मामलों के प्रतिनिधि थॉमस श्मिट कहते हैं कि घर ढूंढना सबसे आम समस्याओं में से एक है. घर ढूंढने में मदद पाने के लिए छात्र एएसटीए की ओर रुख करते हैं.

श्मिट ने डीडब्ल्यू को बताया, "कुछ छात्र अपने माता-पिता से पैसों की गारंटी दिला कर किराए पर घर लेने में सक्षम हैं. विदेशी छात्रों के लिए ऐसा करना मुश्किल है, क्योंकि वे ऐसी गारंटी नहीं दे पाते.” श्मिट चाहते हैं कि छात्रों को घर उपलब्ध कराने के लिए बर्लिन की सीनेट पहले की तुलना में ज्यादा धन खर्च करे. साथ ही. वह किराए को कम करने के लिए किराये की सीमा को फिर से लागू कराना चाहते हैं.

डीएसडब्ल्यू के उप-महासचिव स्टीफन ग्रोब का कहना है कि पिछले 12 से 15 वर्षों में जर्मनी में छात्रों की संख्या लगभग 10 लाख बढ़कर 29 लाख तक पहुंच गई है, लेकिन उस हिसाब से बुनियादी ढांचे को विकसित नहीं किया गया है. वह कहते हैं, "हमें डर है कि हमारा समाज कहीं दो वर्गों में ना बंट जाए. एक अमीर वर्ग, जिसके बच्चे जहां चाहें किराए पर कमरे लेकर पढ़ाई कर सकें और दूसरे वर्ग के बच्चों के लिए पढ़ाई करना मुश्किल हो जाए. यह काफी विनाशकारी होगा, क्योंकि तब पैसे के हिसाब से तय होगा कि कौन पढ़ाई कर सकता है और कौन नहीं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि कौन कितना मेधावी या होशियार है.”

घरों के लिए निवेश करेगी सरकार

डीएसडब्ल्यू चाहता है कि फेडरल स्टूडेंट लोन और अनुदान योजना के तहत मिलने वाले आवास भत्ते में वृद्धि की जाए. साथ ही, डीएसडब्ल्यू ने यह भी स्वीकार किया कि सिर्फ 10 से 11 फीसदी छात्र ही इस योजना की जरूरी शर्तें पूरी करते हैं.

स्थिति को नियंत्रित करने के लिए जर्मनी की गठबंधन सरकार ने छात्रों, प्रशिक्षुओं और प्रशिक्षु पुलिस अधिकारियों को किफायती घर मुहैया कराने के लिए युवा आवास योजना "यूंगेस वोनेन के तहत 2023 में 50 करोड़ यूरो की संघीय सब्सिडी की घोषणा की है.

आवास, शहरी विकास और भवन मंत्रालय का कहना है कि इस योजना के तहत 2024 और 2025 में फिर से 50 करोड़ यूरो की सब्सिडी दी जाएगी. डीएसडब्ल्यू ने इस कदम की प्रशंसा की है, लेकिन इससे उन छात्रों को मदद नहीं मिलेगी जो इस विंटर सेमेस्टर में अपने लिए छत तलाश रहे हैं.

ग्रोब कहते हैं, "छात्र अन्य सामाजिक समूहों, जैसे कि बुजुर्ग, युवा परिवार, काम आय वाले लोग या शरणार्थियों के साथ घर के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं. हम जिस समस्या की बात कर रहे हैं वह सिर्फ उच्च शिक्षा प्रणाली से नहीं जुड़ी है, बल्कि यह एक सामाजिक समस्या है.”