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समाजभारत

'देवताओं से शादी' के लिए मजबूर युवा लड़कियों की दुर्दशा

मिदहत फातिमा
२१ अप्रैल २०२३

भारत में प्राचीन देवदासी प्रथा जाति व्यवस्था में सबसे निचले पायदान की उन लड़कियों को यौन दासता की ओर धकेलती है जो गरीबी से जूझ रही हैं. डीडब्ल्यू ने जानने की कोशिश की कि यह प्रथा आज भी क्यों बनी हुई है.

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देवदासी
भारत की देवदासी प्रथातस्वीर: Imago/ZumaPress

निंगव्वा कनल का जन्म भारत के दक्षिणी राज्य कर्नाटक के एक बेहद गरीब परिवार में हुआ था लेकिन उन्होंने एक बड़ा फैसला लिया जिसने उनकी जिंदगी ही पूरी तरह से बदल दी.

दस लोगों के परिवार में कनल सबसे छोटी थी. उसने यह भी देखा था कि कैसे उसकी सबसे बड़ी बहन वेश्यावृत्ति करने को मजबूर हुई और कैसे वो इस पेशे से अपने परिवार के भरण-पोषण में सक्षम हुई.

डीडब्ल्यू से बातचीत में कनल कहती है, "उन दिनों हमारी स्थिति इतनी ज्यादा खराब थी कि जिस दिन हमारे मां-बाप को काम नहीं मिलता था उस रात हमारे पास खाने के लिए भी कुछ नहीं होता था.”

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महाराष्ट्र के सांगली में रहने वाली देवदासी सुरेखा कांबलेतस्वीर: ZUMA/IMAGO

महज सात साल की उम्र में उसने परिवार की जिम्मेदारी उठाने का फैसला किया और वो भी वेश्यावृत्ति के रास्ते पर चल पड़ी. लेकिन उसका रास्ता थोड़ा अलग था- उसने देवदासी बनने का फैसला किया यानी ‘भगवान की दासी.'

यौन शोषण का जीवन

किशोरावस्था की शुरुआत में जो लड़कियां देवदानी बनती हैं, उन्हें गांव के एक मंदिर को समर्पित कर दिया जाता है जहां वो उसे स्थानीय देवता के साथ शादी करनी होती है और इसका मतलब होता है कि वो जीवन में कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति से शादी नहीं करेगी.

कनल उत्तर प्रदेश के किसी इलाके में एक वेश्या के रूप में काम करती थी और महज 18 साल की उम्र में उसकी दो बेटियां थीं.

अब 54 साल की हो चुकी कनल बीते दिनों को याद करके कहती हैं, "वैसे तो मैं शादियों में परफॉर्म करती थी लेकिन कई बार लोग मुझे जबरन कार में बैठाकर ले जाते थे और मेरे साथ रेप करते थे.”

यह सदियों पुरानी प्रथा है और इसकी उत्पत्ति की कथा देवी येल्लम्मा की कथा में पाई जाती है जिनका मंदिर सौंदत्ती शहर में है और यही मंदिर इस प्रथा का प्रमुख केंद्र है.

देवदासियों को भगवान और उनके भक्तों के बीच के मध्यस्थ के रूप में देखा जाता था जो अपने नृत्य और संगीत से भगवान को खुश कर सकती थीं.

हजारों देवदासियां आज भी झेल रही है शोषण

भगवान को खुश करने के लिए किए जाने वाली उनकी कलाओं ने मंदिर के पुजारियों, अमीरों, उच्च जातियों के पुरुषों और राजाओं को भी आकर्षित किया. देवदासियां धीरे-धीरे दबंग जातियों और वर्गों के लोगों के साथ यौन संबंध भी बनाने लगीं. 19वीं शताब्दी तक देवदासियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति काफी ऊंची थी.

महिला सशक्तिकरण पर केंद्रित गैर सरकारी संगठन संपर्क की संस्थापक और सचिव डॉक्टर स्मिता प्रेमचंदर कहती हैं, "यह सही है कि समाज में उनकी हैसियत ठीकठाक थी लेकिन ऐसा सिर्फ इसलिए था क्योंकि उनके संरक्षक अमीर और प्रभावशाली लोग थे. उनकी यह हैसियत उनके देवदासी होने के कारण नहीं थी.”

वो आगे कहती हैं, "समय के साथ, देवदासियों की यह हैसियत कमजोर पड़ने लगी क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने इस प्रथा को गैरकानूनी बना दिया और देवदासियों को ऐसे लोगों का संरक्षण मिलना बंद हो गया.”

दलित समुदाय को खतरा

साल 2015 में संपर्क संस्था ने देवदासियों की स्थिति पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसे अंतरराष्ट्रीय लेबर ऑर्गेनाइजेशन के सामने प्रस्तुत किया गया. रिपोर्ट के मुताबिक, इस प्रथा के तहत देवदासी के रूप में काम करने वाली करीब 85 फीसद महिलाएं दलित समुदाय से आती थीं जो कि भारतीय जाति व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर हैं.

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संपर्क एनजीओ द्वारा आयोजित एक सामुदायिक बैठक में देवदासी महिलाएंतस्वीर: Sampark

महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली वकील आशा रमेश कहती हैं, "जाति इस प्रथा का अत्यंत महत्वपूर्ण घटक है. ज्यादातर अनुसूचित जातियों में ही यह प्रथा पाई जाती है.”

देवदासी प्रथा भारत के कई राज्यों में प्रचलित है लेकिन मुख्य रूप से यह कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में पाई जाती है.

कर्नाटक सरकार ने इस प्रथा को 1982 में गैरकानूनी घोषित कर दिया था, फिर भी 2019 में आई सेंटर फॉर लॉ एंड पॉलिसी रिसर्च की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि कानून को लागू करने के लिए सरकार ने नियमों का मसौदा अब तक नहीं तैयार किया था.

प्रेमचंदर कहती हैं कि बाल संरक्षण कानूनों को ऐसे मामलों में लागू करने की जरूरत है जहां नाबालिग लड़कियों को इस प्रथा में धकेले जाने का सबसे ज्यादा खतरा रहता है.

संपर्क संस्था की दलील है कि देवदासी कानून और बाल विवाह निषेध कानून, अनुसूचित जाति-जनजाती कानून जैसे कई अन्य कानूनों के अलावा भी इस प्रथा को रोकने के लिए कानूनों की जरूरत है.

सम्मान के लिए संघर्ष

पिछले साल अक्टूबर में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने केंद्र सरकार और छह राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया था कि दक्षिण भारत के तमाम मंदिरों में जारी इस प्रथा को रोकने के लिए क्या कार्रवाई की गई है.

दलित महिलाओं को न्याय में देरी क्यों?

2022 में ही राज्य सरकार ने स्कूलों में देवदासियों के बच्चों के नामांकन के दौरान पिता का नाम अंकित करने को ऐच्छिक बना दिया था.

देवदासी समुदाय के कल्याण के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठन विमोचन संघ के संस्थापक बीएल पाटिल कहते हैं, "इस प्रथा में, लड़कियां अक्सर अपनी मां का अनुसरण करते हुए देवदासी बन जाती हैं. इसे रोकने के लिए हम लोगों ने देवदासियों के बच्चों के लिए एक आवासीय विद्यालय शुरू किया है.”

साल 2008 में देवदासियों की संख्या को लेकर कर्नाटक सरकार ने आखिरी बार सर्वे किया था और उसके मुताबिक, राज्य में 46,600 देवदासियां थीं.

सर्वे इसलिए बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि इसकी वजह से देवदासियों को समाज कल्याण योजनाओं का फायदा मिला.

लेकिन हजारों देवदासियों को इसमें शामिल नहीं किया गया और सर्वे के बाद जो महिलाएं इस प्रथा में शामिल हुईं उन्हें इन योजनाओं से बाहर कर दिया गया.

महानंदा कनल भी उन लोगों में शामिल हैं जिन्हें सर्वे में शामिल नहीं किया गया. वे चर्मरोग से पीड़ित हैं और जीवन-यापन के लिए अपने एक किशोर उम्र के बेटे पर निर्भर हैं.

35 वर्षीय देवदासी महानंदा कहती हैं कि उन्हें मदद की सख्त जरूरत है, "मैंने अपनी बीमारी के कारण कभी भी अपना गांव नहीं छोड़ा और इसीलिए इस सर्वे के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी.”

प्रेमचंदर कहती हैं, "देवदासियों की जरूरतों को देखते हुए यह जरूरी हो जाता है कि कोई नया सर्वेक्षण कराया जाए. महिलाएं अभी भी जीवित हैं और उन्हें इसकी बहुत जरूरत है. यह प्रथा भले ही गैरकानूनी कर दी गई हो लेकिन देवदासियां तो अभी भी हैं.”